Pages

Thursday 28 September 2017

सपनों का एक गांव, बरसुड़ी, उत्तराखंड - A village of dreams, Barsudi, Uttarakhand

12 अगस्त 2017 , दिन- शनिवार 



एक दिन बैठे-बैठे फेसबुक चला रहा था, तो एक पोस्ट पर नज़र गई। जिसमें हेल्थ और एजुकेशनल कैंप के बारे में जिक्र था। लेकिन कुछ खास समझ नहीं आने पर अपने घुमक्कड़ मित्र सचिन त्यागी जी से इस बारे में पूछा गया। सचिन भाई ने काफी कुछ बताया और जो थोड़ा बहुत बच गया, वो रमता जोगी जी उर्फ़ बीनू भाई ने बता दिया। उन्होंने बताया कि अलग-अलग राज्यों से 40-50 घुमक्कड़ मित्र मिलकर निस्वार्थ सेवा भाव से गाँव वालो के लिए एक हेल्थ कैंप का आयोजन करते है। जिसमे बरसुड़ी एवं आस पास के गाँव वालों का मुफ्त में चेकअप करते है और कुछ बुनियादी दवाईयां देते है। और साथ-साथ बरसुड़ी में स्थित स्कूल के बच्चों के लिए एक एजुकेशन कैंप का भी आयोजन करते है। इस बहाने सब एक-दूसरे से मिल भी लेते है। ये तो वाकई में बहुत ही अच्छा लगा मुझे और मैंने तुरंत चलने को हाँ कर दी। 


दरअसल पहले बरसुड़ी गाँव के बारे में बहुत ही कम लोग जानते थे। यहां तक की गूगल बाबा की गिरफ्त से भी यह बहुत दूर था। पिछले 2 वर्षो में, एजुकेशन कैंप का आयोजन कर, हमारे घुमक्कड़ मित्रों एवं बीनू कुकरेती जी (जो इसी गांव के ही है और यह सब इन्ही के प्रयास से हर साल संभव हो पाता है) ने उत्तराखंड के इस खूबसूरत गांव बरसुड़ी को लोकप्रिय बनाया। अब तो इस गांव की जान पहचान गूगल बाबा से भी हो गयी। बरसुड़ी, उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में आता है। कोटद्वार से बरसुड़ी की दूरी लगभग 48 किलोमीटर है। कोटद्वार से आगे 14 किलोमीटर तक, कोटद्वार-लैंसडौन मार्ग पर ही जाना होता है। 14 किलोमीटर इसी मार्ग पर चलने पर एक जगह आती है दुगड्डा, इसको पार कर सीधे वाला मार्ग लैंसडौन को जाता है और बरसुड़ी के लिए बायीं ओर ऊपर वाले मार्ग को जाना होता है। यहाँ से 14 किलोमीटर आगे जगह आती है पली मल्ली। पली मल्ली से 2 किलोमीटर आगे यह मार्ग मेरठ-पौड़ी राजमार्ग (जो कोटद्वार-पौड़ी मार्ग के नाम से भी जाना जाता है) में जाकर मिल जाता है। इस राजमार्ग पर मात्र 2 किलोमीटर ही चलना होता है। 2 किलोमीटर चलकर, मार्ग दो भागो में बट जाता है। एक मेरठ-पौड़ी राजमार्ग जो दायी ओर चला जाता है और दूसरा गुमखाल की ओर जाने वाला मार्ग, जो बायीं ओर है। बायीं ओर वाले मार्ग पर 1 किलोमीटर आगे ही गुमखाल आ जाता है। अब इस मार्ग को द्वारीखाल तक कही नहीं छोड़ना होता और ना ही कोई और मुख्य मार्ग इस बीच इस मार्ग पर कही मिलता है। गुमखाल से द्वारीखाल की दूरी 11 के आसपास है। कोटद्वार से द्वारीखाल तक बेहतरीन, पक्का रोड बना हुआ है। यहाँ से बरसुड़ी की दूरी तक़रीबन 7 किलोमीटर है जो मार्ग कच्चा होने के कारण पैदल या बाइक से ही तय किया जा सकता है। 



चलने वाले दिन यानी 12 अगस्त को सभी तैयारी कर ली गयी। और बॉस से छुट्टी की भी मंजूरी मिल गई। घर वालों को बताया तो उनको मेरा यूं अकेले जाना ठीक नहीं लगा। पर मेरे कहने पर वो जल्द ही मान गए। 12 की सुबह चलने को तैयार ही हुआ था कि ऑफिस से बॉस का फोन आ गया और एक जरूरी काम बोल मुझे ऑफिस बुला लिया। बुरा लगा... बुरा नहीं, बहुत बुरा लगा....। अब चाहे अच्छा लगे या बुरा काम तो करना ही था। पर संयोग से सारा काम फोन पर ही होता चला गया और मुझे जाने की जरुरत नहीं पड़ी। अब फिर से इस गर्मी में अपने बरसुड़ी जाने वाले सपने को ठंडे पानी से सींचने लग गया। समय 11 का हो रहा था। चलते समय एक संदेश समूह में छोड़ दिया कि "भाइयों मैं बाइक द्वारा अब ग़ज़ियाबाद से निकल रहा हूँ। यदि कोई मित्र मेरे आसपास हो और साथ चलने के इच्छुक हो तो स्वागत है।" तभी मुरादनगर से मित्र सूरज मिश्रा जी का फोन आया और मेरे साथ चलने को तैयार हो गए। मैं भी कुछ देर में अपना घर और भार दोनों छोड़ निकल गया। घर से निकला ही था कि इतने में सूरज मिश्रा जी का दोबारा फोन आया और किसी जरूरी काम आन पड़ने के कारण साथ चलने में असमर्थता व्यक्त की। "कोई नहीं मिश्रा जी जैसा आपको ठीक लगे" कह मैं मंजिल को ओर चल दिया। जब से नीलकंठ महादेव मंदिर की यात्रा अकेले की है तब से अकेले जाने में हिचकिचाहट नहीं होती और एक अलग अनुभव का मौका मिलता है जो मुझे बेहद पसंद भी है। मोरटा से मुरादनगर तक जाम था पर बाइक फिर भी अपना रास्ता ढूंढ ही लेती है। 12 बजे मुरादनगर पंहुचा। यहाँ कुछ काम से मौसा जी के घर रूका और फिर 12:30 बजे यहाँ से निकल गया। मोदीनगर पार करते हुए मेरठ बाईपास से खतौली और खतौली से मीरापुर होते हुए बिजनौर और वहां से किरतपुर। बहुत समय हो गया था चलते-चलते सो किरतपुर 5 मिनट रूका। पूरा रास्ता धूप भरा रहा। अति लघु विश्राम के बाद, फिर से चल दिया। किरतपुर से नजीबाबाद अगले कुछ मिनटों में पहुंच गया। यहाँ पुल निर्माण का काम चल रहा था। हलाकि पुल के नीचे से धीरे-धीरे इस मुकाम को पार किया। नजीबाबाद कुछ देर खड़े हो यहां से गुजरती रेल को सम्मान दिया। अब यहाँ से आगे का मौसम बिलकुल विपरीत था। जहाँ सुबह से अब तक पूरे रास्ते गर्म हवा के थपेड़े को मुस्कराके सहन करना पड़ रहा था वही यहाँ से आगे का मौसम अपनी ही तरह खुश मिजाज था। अभी कुछ समय पहले ही बारिश रुकी है यहाँ पर। ठंडी हवा ने मरहम का काम किया। 



यहाँ से मैंने समूह में एक संदेश और छोड़ दिया कि "मैं कोटद्वार पहुंचने वाला हूँ। कोई मित्र यहाँ हो तो , मेरे वहां पहुंचने का इंतज़ार करे। ताकि आगे का सफर साथ कर सके।" इतने में समीपुर के पास पीछे से आती एक कार ने मेरे बराबर में आते ही ब्रेक लगा दिये। समझने में ज्यादा समय नहीं लगा। कार के शीशे से धीरे से कोठारी जी ने गर्दन बाहर निकाली और सबका परिचय कराया। कार धर्मेंद्र माथुर जी चला रहे थे, उनके बराबर वाली सीट कोठारी ने अपने नाम की हुई थी। और पीछे बीनू कुकरेती जी के माता जी और पिता जी बैठे थे। कोठारी जी ने मुझसे कहाँ कि आगे का सफर साथ ही रहना और द्वारीखाल से किसी एक को अपनी बाइक पर गांव ले जाना। 

"ठीक है जी जैसा आप कहे" 
अब वो कार से आगे चल दिए और मैं पहले की तरह गुनगुनाता अपनी बाइक पर। थोड़ा आगे चलते ही बारिश होने लगी। बाइक रोक जल्दी से मोबाइल को सुरक्षित जगह पहुंचाया और बिना चतुराई दिखाए खुद को रेन कोट के हवाले कर दिया। महज 10 मिनट में, मैं कोटद्वार जा पहुंचा। सामने ही माथुर जी खड़े दिखाई दिए। सभी वहां चाय का मजा ले रहे थे.... .. वो भी अकेले-अकेले। मेरे पहुंचते ही कोठारी जी और माथुर जी ने मुझे भी चाय लेने को बोला। पर चाय मुझे कुछ खास पसंद नहीं खासकर गर्मियों में। इसलिए मैंने मना कर दिया और आगे चलने को बोला। यहाँ से आगे पहाड़ों की हुकूमत है। ये पहाड़ देखने में जितने विशाल है, उतने ही ह्रदय से शांत। 


अभी कुछ दिनों पहले ही कोटद्वार में बादल फटा था। जिसके निशान यहाँ अभी भी दिखाई दे रहे थे। इन जख्मी पहाड़ों के साथ-साथ, खोह नदी इस सबसे बेखबर , पूरे उल्लास के साथ, ना जाने कहाँ दौड़ी चली जा रही थी। वो कितनी खुश है, यह उसके वेग से साफ़ जान पड़ रहा था। इस तरफ मैं पहली बार आया हूँ तो इस अपरिचित माहौल से अपना परिचय कराया। मुझे देख जख्मी पहाड़ों ने भी अपना दर्द बया किये बिना, खिले चेहरे के साथ मेरा अभिनंदन किया। मानो वो सब मेरे साथ सिर्फ और सिर्फ खुशी बांटना चाहते हो। मैं भी खुश था, मुस्करा रहा था पर भूस्खलन का दर्द मेरे से छिपा हुआ नहीं था। जगह-जगह पहाड़ भूस्खलन के रूप में अपने शरीर का अंग खोते जा रहे थे और पानी के रूप में निकलता उनका रक्त, सड़को पर बेसुध हुए इधर-उधर भागे जा रहा था, जिसे वही बायीं ओर खुशनुमा और तेज वेग से बहती खोह नदी, अपनी खुशियों में शामिल कर, उनके दुखों को कम करने की कोशिश में थी। बरसात का मौसम होता ही ऐसा है, एक तरफ इसके आने से बेजान और सूखी पड़ी नदियां पुनः जीवित हो जाती है तो वही दूसरी तरफ पहाड़ों को अपने अस्तित्व को बचाये रखने में मुश्किलें आती है। एक जगह ऐसे ही पहाड़ से मलबा रोड पर आ गिरा, जिससे रास्ता बंद हो गया। जे.सी.बी मशीन से मलबा हटाने का काम तेजी से किया जा रहा था। हम ठहरे बाइक मैन, कही भी फसे हो, अपने लिए रास्ता बना ही लेते है। मैं तो वहां से निकल आया पर माथुर जी की कार, रास्ते के खुलने का इंतज़ार करती रही। पीछे रास्ता बंद हो जाने की वजह से अब मेरे पीछे से कोई वाहन नहीं आ रहा था। आगे से भी कम ही वाहन आ रहे थे। तो इस मौके का फायदा उठाते हुए मैं कुछ देर रुक, खोह नदी से बातें करने लगा। आप सोच रहे होंगे कि मैं क्या बातें कर रहा था ? अब ये तो एक प्रकृति प्रेमी ही जाने कि प्रकृति से क्या और कैसे बातें होती है। ये शब्दों की मोहताज नहीं होती। अब कुछ देर ठहर आगे अपनी मंजिल की ओर चल दिया। दुगड्डा होते हुए गुमखाल पहुंचा। गुमखाल से घने काले बादल मेरे साथ-साथ हो लिए। मौसम का मिजाज फिर से बदला-बदला सा लग रहा था। मैं अभी तक रेन कोट पहने हुए था। इसलिए बिना रुके चलते रहा और हां अब तक माथुर जी की कार भी मेरे पास आ गयी थी। कभी वो मुझसे आगे, तो कभी मैं उनसे आगे। इसी तरह द्वारीखाल, हम एक साथ पहुंच गए। द्वारीखाल पहुंच मैंने रेन कोट निकाल दिया। तापमान थोड़ा कम होने के कारण हल्की सी सर्दी का एहसास हुआ जो जल्द ही सामान्य हो गया। 



अब तक शाम हो चुकी थी। अगले आधे घंटे में अंधेरा होने वाला था। द्वारीखाल से बरसुड़ी 7 किलोमीटर है और इस पूरे रास्ते, सड़क नाम की सुविधा अभी नहीं है। बिलकुल कच्चा रास्ता, जहाँ कार नहीं जा सकती। आगे बाइक ही जा सकती है वो भी बहुत ही मुश्किलों से। द्वारीखाल से, धीरे-धीरे चलने को कह, मेरे साथ बाइक पर बीनू कुकरेती जी के पिता जी बैठ लिए। आस पास खड़े लोगों ने भी सावधानी से आगे जाने की सलाह नाम का भाला मेरी और फेंकने में तनिक भी देरी नहीं की। मुझे भी बाइक चलाने का 10 साल से भी ज्यादा का अनुभव है, इसी अनुभव और आत्मविश्वास के साथ उनको मेरी ओर से चिंता ना करने को बोल वहां से चल दिया। यहाँ से निकलते ही पथरीला रास्ता ढलान के साथ शुरू हो गया। धीरे-धीरे मैं चलता गया। आगे रास्ता इतना खराब था कि एक जगह तो पूरा का पूरा रास्ता खाई के में समा गया था। और रास्ते के नाम पर कीचड़, फिसलनदार नाम की मात्र एक लीक। और ये लीक भी पानी में डूबी हुई थी। साइड में पैर रखने भर की जगह नहीं थी। जरा से चूक हुइ की फिर तो नीचे पैर रखने की भी जगह नसीब नहीं होगी और आप सीधा पाताल लोक और वहां से तत्काल में सीधा परलोक। यहाँ मेरा अनुभव काम आया और हम सकुशल आगे निकल गए। इससे आगे कुछ दूर तक रास्ता अपेक्षाकृत ठीक था। 

यही वो खतरनाक जगह जहाँ मात्र एक लीक पर जीवन था  

"बस इसी वजह से परेशान हो रहे थे सब। अब पहुंचे बरसुड़ी " यही सोचे मैं बाइक चलाता रहा। कुछ देर बाद फिर से रास्ता, पत्थरों का गुलाम हो गया। पत्थरों पर बाइक चलाना बेहद मुश्किल हो रहा था। अब कही-कही पथरीले रास्तों के साथ-साथ ढलान का भी सामना हुआ। जहाँ मुश्किलें कई गुणा बढ़ गयी। ऐसी जगह यदि दोनों ब्रेकों का प्रयोग किया जाये तो ही संतुलन बनता है। पर पत्थरों पर पहिया आते ही संतुलन बिगड़ जा रहा था जिसकी वजह से दोनों पैरों से बाइक को गिरने से रोकना पड़ रहा था। अब बाइक दायीं और बायीं तरफ गिरने से तो बच गयी पर खाली अगले ब्रेक लगाने से बाइक ढलान पर रुक ही नहीं थी। एक तो मेरा बैग मुझे अपने आगे की ओर कंधों पर लटकाना पड़ा जो बार-बार फिसल रहा था (ये संतुलन बिगड़ने की मुख्य वजह रही), दूसरा अंकल जी के साथ होने से मैं बाइक बिना तेज और झटके दिए बैगर चला रहा था। हालत खराब हो गयी.... तभी याद आया कि मेरा बाइक चलाने का अनुभव पक्के रास्तों का है ऐसे पथरीले रास्तों का नहीं। अभी तक गाँव नहीं आया था और अंधेरा हो गया। ये 7 किलोमीटर मुझे 70 किलोमीटर के बराबर लग रहे थे। 
अंकल जी से मैंने पूछा " अंकल जी क्या अब तक हमने आधा रास्ता पार कर लिया या नहीं।"
"नहीं बेटा हम बस 500 मीटर दूर है गांव से" पीछे से ये जवाब आया तो सुकून मिला। 
अगले कुछ मिनटों में हम बरसुड़ी गांव में थे। गांव के बीच में एक चौक है। वहां पहुंचते ही बाइक खड़ी कर दी। यहाँ पहले से ही 6-7 बाइक खड़ी थी। पर इस चौक पर कोई दिखाई नहीं दिया। बीनू जी को बताने को फ़ोन निकला ही था कि एक टोली आकर मेरे पास रुकी। आज से पहले मैं यहाँ मौजूदा किसी भी सदस्य से पहले कभी नहीं मिला था। इसलिए सबको पहचानना मुमकिन नहीं था। पर मैंने बीनू जी को और सचिन जी को पहचान लिया। गर्म जोशी के साथ मुलाकात हुई। 


यहाँ गाँव में रहने वाले परिवार के घरों में ही सबके ठहरने का इंतज़ाम था। बीनू जी के चाचा जी श्री हरीश कुकरेती जी के यहाँ सचिन जी और उनके मित्र और सहयात्री मुस्तफा भाई रुके हुए थे। उन्ही के कमरे मैं भी ठहरा। यहाँ से सभी बीनू जी के घर गए जहाँ उपस्थित कुछ लोगों से फिर से परिचय हुआ। कुछ देर बाद गांव के पंचायत घर में सब घुमक्कड़ मित्र इकट्ठा हुए। सब ने एक बार फिर से बारी-बारी अपना परिचय दिया। और अगले दिन की योजना के साथ रात का भोजन किया। हर तरफ हंसी के ठहाके लग रहे थे। सभी एक-दूसरे से मिल बहुत खुश हुए। रात के 10 बज गए थे। सभी भोजन के बाद अपने-अपने ठिकानों पर चले गए। 

अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें..... 

बिजनौर से आगे 




बिजनौर से आगे 












खोह नदी















पूरा रास्ता ऐसा ही शानदार है 



























ये तो सिर्फ ट्रेलर है (द्वारीखाल और बरसुड़ी के बीच)

इस यात्रा का अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे....
1.  सपनों का एक गाँव, बरसुड़ी, उत्तराखंड - A Village of Dream, Barsudi, Uttrakhand 
2. खेल-खेल में, बरसुड़ी, उत्तराखंड- Khel-Khel Me, Barsudi, Uttrakhand

30 comments:

  1. निस्वार्थ सेवा भाव
    सटीक शब्द..........

    ReplyDelete
  2. बहुत खूब। बढ़िया और विस्तृत वर्णन। आपकी लेखन शैली अच्छी लगी गौरव भाई।

    ReplyDelete
    Replies
    1. तहे दिल से शुक्रिया बीनू भाई..

      Delete
  3. बहुत बढ़िया लिखा गौरव भाई, हर बारीक से बारीक बात भी आपने शब्दों में ढालकर चार चाँद लगा दिए।बीच बीच में हास्य का पुट,आपका प्रकृति से एकाकार होकर बातें करना भा गया।बहुत ही उम्दा लेख।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद रूपेश जी।

      Delete
  4. बहुत सुंदर शब्दों में वर्णन किया।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद आपका सचिन जी

      Delete
  5. बहुत खूब, सात किलोमीटर का रास्ता सत्तर जैसा ही है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी प्रतिक्रिया से मुझे बहुत खुशी मिलती है सर। मेरा अनुरोध है कि हमेशा मेरा मार्गदर्शन कीजियेगा। बहुत बहुत धन्यवाद आपका।

      Delete
  6. बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
    सड़कों की हालत वाकई में बहुत खतरनाक होती है हमारे पहड़ों के, लेकिन फिर भी लोग जान की परवाह किये बिना जैसे-तैसे चलते रहते हैं
    खतरों को मोल न ले तो पहाड़ के सुंदरता में चार चाँद लग जाय हर समय

    ReplyDelete
    Replies
    1. कविता जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका
      जी सही कहाँ आपने , वैसे इन पहाड़ो को ऐसी स्थिति में पहुंचाने वाले भी हम इंसान ही है।

      Delete
  7. बहुत खूब
    पहाड़ों व खोह नदी के अंतर्मन का वर्णन विशेष अच्छा लगा। हमें भी लगा कि आप प्रकृति का पूरा लुत्फ़ लेते हुए सफर कर रहे थे।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार
      आप तो स्वयं अधिकतर बाइक से ही घूमते है इसलिए आप तो भली भांति जानते है कोठारी जी कि बाइक से सफर कितना मजेदार होता है।

      Delete
  8. बहुत शानदार और सजीव यात्रा वर्णन है पढ़कर ऐसा लग मानो आपके साथ ही यात्रा कर रहे हो।
    बहुत सुंदर जीवंत तरीके से आपने अपनी यात्रा को शब्दो मे उकेर ढिया है बिल्कुल चित्रात्मक ढंग से।
    बहुत सुंदर!

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया अमित कुमार जी

      Delete
  9. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-09-2017) को
    "अब सौंप दिया है" (चर्चा अंक 2742)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी

      Delete
  10. बेहतरीन, लाजवाब, शानदार

    ReplyDelete
    Replies
    1. स्वागत है रचना जी आपका। आप पहली बार मेरे ब्लॉग पर आये है और धन्यवाद आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए..

      Delete
  11. बेहतरीन, लाजवाब, शानदार

    ReplyDelete
  12. बहुत बढ़िया सजीव वर्णन गौरव भाई... यादें ताज़ा हो गई एक एक क्षण की...

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपने फिर से उन्हीं क्षणों को मेरे लेख द्वारा जी लिया मतबल मेरा लिखना सफल हो गया। धन्यवाद संजय जी।

      Delete
  13. बहुत ही सजीव यात्रा वर्णन किया है आपने गौरव भाई , बरसुड़ी गाँव का ! इतने सुन्दर रास्ते , चारों तरफ हरियाली ! अहा , मन मोह लिया ! बरसुडी की यादें बहुत अच्छी तरह से प्रस्तुत की है आपने !!

    ReplyDelete
    Replies
    1. लेख की प्रशंसा के लिए आभार आपका योगी जी।

      Delete
  14. आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूं लेकिन आकर बहुत अच्छा लगा बहुत ही सरल सुरुचिपूर्ण भाषा शैली के साथ ही प्रकृति का मानवीकरण और कम शब्दों में ज्यादा कहने की शैली सब कुछ दिल को छू गई बहुत बढ़िया पोस्ट लिखी है । अगली पोस्ट का बेसब्री से इंतजार रहेगा ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका दिल से स्वागत है मुकेश जी। ख़ुशी हुई जानकर कि आपको यह लेख अच्छा लगा। आप सभी की सकारत्मक प्रतिक्रिया मुझे और अच्छा लिखने को प्रेरित करती है... अगली पोस्ट जल्द ही आएगी। शुक्रिया आपका मुकेश जी।

      Delete
  15. बरसुडी जाने का मौका चूक गया पर आपके यात्रा विवरण ,बारीकी से लिखा यात्रा विवरण पढ़कर बरसुडी भ्रमण कर आया

    ReplyDelete
  16. पहले मुझे भी अकेले bike से घूमने में डर लगता था पर अब धीरे धीरे नहीं लगने की और बढ़ रहा हु..बढ़िया पोस्ट

    ReplyDelete

  17. आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं

    ReplyDelete