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Friday 16 December 2016

गुच्चुपानी की सैर, देहरादून

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देहरादून 


कुछ देर में हम गुच्चुपानी पहुँच गए। गुच्चुपानी दरअसल पहाड़ो के बीच बनी एक प्राकर्तिक गुफा है। इसकी लम्बाई लगभग 500-550 मीटर होगी। ये पहाड़ दो भागो में बटा हुआ है। और इसके अंदर से छोटे झरने के रूप में पानी बाहर निकलता है।






दो भागो में बटी हुई गुफा। 










गुफा से बहार की तरफ आता पानी। 


बाइक पार्किंग में लगाई और इसे देखने आगे बढे ही थे कि अचानक पीछे से किसी ने आवाज़ लगाई " रुकिये भाईसाहब, जूते यही निकाल दीजिये और चप्पल ले लीजिये" दरअसल गुफा में जाते समय पानी में ही चलना पड़ता है। इसलिए यहाँ पर कुछ लोगो ने पेड़ो के निचे, खुले में ही दुकान डाल रखी है। और ये दुकान है चप्पलो की। यहाँ अंदर जाने के लिए चप्पल किराये पर मिलती है।  लेकिन ये लोग पैसा एठने में कोई कसर नहीं छोडते। यहाँ एक जोड़ी चप्पल का किराया है 10/- रुपए और जो अपने जूते निकालकर आप यहाँ रखोगे उसके 10/- रुपए ये अलग से लेते है ओर तो ओर यदि कोई और सामान साथ में रखोगे जैसे बैग या कुछ और , तो उसका किराया भी अलग से लेते है। हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ। हमने 4 जोड़ी जूते वहां रखे और किराये पर 4 जोड़ी चप्पल उससे ले ली।  अब हमारे पास बचे बैग।  बैगों को कहाँ ढ़ोते रहते।  इसलिए वो भी वही रख दिए। यहाँ से चलते समय उसने और एक अनोखी बात बताई कि यदि चप्पल खो जाती है तो 1 जोड़ी चप्पल का 100 रुपए हर्जाने के रूप में आपसे लिया जायेगा। पहले तो मेरे मन में भी यही आया कि भला हम बच्चे कोई है जो उसकी चप्पल ही खो देंगे। यही सोचते हुए, मैं बाकि दोस्तों के साथ आगे बढ़ गया। जैसे ही मैंने गुफा में जाने के लिए पानी में अपना पहला कदम बढ़ाया। उसके द्वारा बताई गयी बात अब मुझे सच लगने लगी। इसकी कई वजह है,  पानी और पत्थर। पहला, पानी और हम एक दूसरे के विपरीत दिशा में चल रहे थे। पानी अंदर से बाहर की तरफ बह रहा था और हम बाहर से अंदर की तरफ जा रहे थे। हलाकि पानी की रफ़्तार इतनी नहीं थी कि वो हमे गिरा सके पर संतुलन बिगाड़ने में इसका हाथ जरूर था। दूसरा, पानी के अंदर पड़े गोल-गोल फिसलनदार पत्थर, ये पत्थर जरूर सबका संतुलन बिगाड़ रहे थे। जैसे ही इन पत्थरो पर पैर पड़ता, संतुलन खुद-ब-खुद बिगड़ जाता। यहाँ मेरी एक चप्पल पैर से निकलकर बहने लगी। दिमाग में तुरंत 100/- रुपए के नोट की तस्वीर बन गयी।  सोचा अब चप्पल भी गयी और 100 का नोट भी। तभी एक सज्जन ने मेरी चप्पल को बहने से रोक लिया। यहाँ मैं ही ऐसा नहीं था जिसकी चप्पल बह रही थी, ऐसे लोगो की संख्या बहुत थी। कुछ बहती चप्पलो को तो मैंने भी रोका। लेकिन बहती चप्पलो की संख्या इतनी थी कि मैं अकेला इन्हें नहीं रोक पाता। और तभी मेरे मन में यह सवाल आया कि मैं यहाँ घूमने आया हूँ या चप्पलो को बहने से बचाने के लिए ? जिनकी चप्पल है उनको तो पता भी नहीं कि उनकी चप्पल पानी में बह रही है बल्कि वे तो अपनी मस्ती में मस्त है और मैं सोशल कार्य में लगा हुआ हूँ। उसके बाद मैंने चप्पलो से ही अपना ध्यान हटा लिया और आप भी अब इन पर से अपना ध्यान हटा लीजिये। 

हम एक-दूसरे का सहारा लेते हुए आगे बढ़ते गए। कही-कही पर तो पानी मेरे घुटनो को छू रहा था। ठण्डे पानी में इस तरह चलना मेरे लिए एक अलग ही अनुभव था। मुझे बहुत ही राहत महसूस हो रही थी।  और कल से अब तक जो बाइक पर आने से थकान हो रही थी, वो भी छूमंतर हो गयी। वैसे तो यहाँ पर सभी तरह के लोग आये हुए थे। लेकिन सबसे ज्यादा संख्या, देहरादून के कॉलेजो में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों की थी। यहाँ भारी संख्या में प्रेमी युगल डेट पर भी आते है। गुफा के अंदर, जहाँ से पानी निकलता है वहां पर कुछ जोड़े, पानी को एक-दूसरे के ऊपर डालकर खेल रहे रहे थे। और  नहा भी रहे थे। कुछ उच्च कोटि के लड़के टकाटक अपनी नज़र उन लड़के-लड़कियों पर गाड़े हुए थे। जिनसे हमने यहाँ आने का रास्ता पूछा था, उनके मुस्कराने की भी शायद यही वजह थी। हमे नहाना तो नहीं था इसलिए बिना उनकी मौज-मस्ती में खलल डाले वहाँ से वापस बाहर आ गए। यहाँ पर कुछ खाने-पिने की दुकाने भी है। जिन्होंने अपनी-अपनी दुकानों के सामने, पानी के अंदर कुछ कुर्सी मेज भी रखे हुए थे।  इन दुकानों से सामान खरीदकर, आप यहाँ पानी में पैर डालकर आराम से इन कुर्सियों पर बैठ के खाने का मजा ले सकते है। यदि आप बिना कुछ ख़रीदे कुर्सी पर जा के बैठे तो आपका ये मजा, सजा बन जायेगा। यदि बिना कुछ सामान ख़रीदे आप इन कुर्सीयो पर आराम फरमाते मिले तो ये दुकानदार आपसे 50/- रुपए (प्रति कुर्सी) जुर्माने के तोर पर वसूल लेंगे। और आप खुद को ठगा हुआ पाएंगे। आपको यह सूचना यहाँ सभी दुकान पर लिखी मिल जाएगी। हम ठहरे देश के आम नागरिक, तो भला कुर्सीयो पर बैठने के पैसे क्यों देते। इन्ही कुर्सीयो के पास बड़े-बड़े पत्थर भी थे। हम जाकर उन पत्थरो पर बैठ गए। अक्टूबर के सुहाने मौसम में, पैरो को पानी में डालकर बैठने का एहसास ही अलग है। यहाँ बहुत आंनद आ रहा था। हमे समय का भी ध्यान रखना था। और रात होने से पहले मंसूरी पहुँचना था। इसलिए कुछ समय यहाँ बैठने के बाद वापस चल दिए। बाहर आये चप्पल वापस की, उससे अपना सामान लिया और रवाना हो गए।









यहाँ पर आशीष का पैर फिसल गया था। तभी मैंने फोटो ले ली। फोटो धुंधली है पर मजेदार भी, ऐसा लग रहा है जैसे आशीष ने दारु पी रखी हो। 








पानी के अंदर रखी कुर्सीया 







मसूरी 

अब हमारी अगली मंजिल थी मसूरी। हम उन पहाड़ो पर जा रहे है जिनको पहाड़ो के रानी कहा जाता है।  यह विचार मन में आते ही, मानो मेरी धड़कनो की रफ़्तार बाइक की रफ़्तार से कही आगे निकल जाती थी।  मैं बहुत ही उत्सुक था। अपनी उत्सुकता को बनाये रखते हुए आगे बढ़ते गए। वैसे तो  मैंने घर के पास से ही बाइक की टंकी फूल करा ली थी। पर यहाँ आते-आते टंकी थोड़ी खाली हो गयी थी।  इसलिए रास्ते में एक पेट्रोल पंप से मैंने पेट्रोल भरवा लिया था। हमे अभी भी 26 किलोमीटर का सफर, रात होने से पहले तय करना था। तो बिना देरी किये वहाँ से निकल गए। पहाड़ शुरू होते ही यहाँ के रास्तो ने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया। और हर एक मोड़ पर मेरी यह परेशानी बढ़ती हुई, साफ़ दिखाई दे रही थी। हालात यह थे कि मोड़ पर, बाइक मोड़ते समय यदि संतुलन बिगड़ गया तो बाइक सीधा खाई में। और रही सही कसर, ट्रैफिक ने पूरी कर रखी थी। मैं ट्रैफिक और खाई से बचता बचाता, बहुत ही धीरे बाइक चला रहा था। इतने सक्रीय और पहाड़ी रास्तो पर मैं पहली बार बाइक चला रहा था। इसलिए मेरी मुश्किलें ओरो से शायद थोड़ी ज्यादा थी। फिर भी बाइक चलाने में मजा बहुत आ रहा था। इसी बीच मेरे पीछे बैठा जावेद बोला कि गौरव भाई निचे खाई की तरफ देखो क्या बेहतरीन नज़ारे है इधर के। मैंने जैसे ही उस तरफ देखा तो रास्ते से नज़र हटने के कारण मेरी बाइक असंतुलित होने लगी। मैंने तुरंत अपना ध्यान फिर से बाइक चलाने में लगाया और जावेद से बोला कि भाई यदि मैं बाइक चलाते हुए इन नाज़रो को देखूंगा तो बाइक और हम इन नाज़रो में भी कही नज़र नहीं आयेंगे। इसलिए फ़िलहाल तुम ही देखो।  हालांकि खाई इतनी ज्यादा गहरी भी नहीं थी लेकिन ध्यान भटकाने के लिए यह काफी थी। अब एक घंटे में अँधेरा होने वाला था और भूख भी लग रही थी। तो सड़क किनारे बनी एक दुकान पर बाइक रोक ली। यहाँ खाने में कुछ खास तो मिला नहीं इसलिए मैगी और चाय के सेवन से ही दिल को समझा लिया। हम फुरसत के इन पलो को महसूस करते रहे और आगे बढ़ते रहे। हमारे और अँधेरे तथा हमारे और मसूरी के बीच की दुरी लगभग एक समान थी।  जैसे-जैसे अँधेरा हमारी तरफ बढ़ रहा था वैसे-वैसे हम मसूरी की तरफ बढ़ रहे थे। और रात होने से पहले हम मसूरी पहुँच गए। यहाँ पहुँचते ही सबसे पहले रात रुकने का इंतज़ाम करना था।  इसलिए चारो अलग-अलग होटलो में जाकर कमरे के लिए बात करने लगे। वैसे तो यहाँ कमरे हर होटल में ही मिल रहे थे पर हमे लोकेशन और बजट दोनों का ध्यान रखना था। इसलिए खोज करने का ये शिलशिला कुछ देर तक चला और हमे काफी किफायती कमरा मिल गया। सबसे अच्छी बात यह थी कि जो कमरा हमने लिया था उस कमरे में एक डबल बेड था और एक सिंगल बेड, जो हम चारो के लिए पर्याप्त था। कमरे में बैग रखकर, खाना खाने के लिए होटल से बाहर आ गए। टहले हुए एक रेस्टॉरेन्ट में गए और खाने में शाही पनीर, दाल मखनी और नान आर्डर की।  कुछ ही देर में खाना हमारे सामने मेज पर लग चूका था। खाना बहुत ही लाज़वाब था। इतना स्वादिष्ट खाना खा कर पेट और आत्मा दोनों धन्य हो गए। आमतौर पर स्वादिष्ट खाना बहुत ही कम जगह पर मिलता है इसलिए ऐसे स्वादिष्ट खाने के लिए,  मैंने रेस्टॉरेन्ट मालिक का शुक्रिया किया। उसने भी बहुत ही सहजता से धन्यवाद किया। 9 बज चुके थे हवा मैदानी क्षत्रो  की अपेक्षा ज्यादा तेज और ठंडी थी।  इससे पहले ओर ठण्ड बढे, हम होटल चले गए। कुछ देर बाते की और फिर सो गए।












रात को मसूरी से निचे का नज़ारा 



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