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14 मई 2017, दिन- रविवार
अब एक पॉइन्ट पर मुख्य सड़क मार्ग अलग हो गया और मैं बायीं ओर पैदल जाने वाले पथ पर मुड गया। तभी मुझे किसी मानव की आवाज सुनाई दी तो राहत मिली। पर जो वो 2 किलोमीटर का अकेले, आँखों में डर और रूह खड़े कर देने वाला रास्ता था वो बहुत ही दिलचस्प लगा। उस 2 किलोमीटर में मैं डर तो रहा था पर खुद से यह भी कह रहा था कि अच्छा रहा मैं अकेले ही यहाँ आया हूँ। यदि किसी ओर के साथ आता तो इस रोमांच से मुलाकात नहीं हो पाती। जहाँ से पैदल पथ शुरू होता है वहां बार्ड पर नीलकंठ की दूरी 8 किलोमीटर लिखी हुई थी। जो मुझे गलत लगी। यह ट्रेक मुझे 8 से कही ज्यादा लगा।
14 मई 2017, दिन- रविवार
गंगा स्नान कर नाश्ते की तलाश में कुछ जगह छानी पर सुबह 7 का समय होने की वजह से कही कुछ नहीं मिला। अब ऐसे ही आगे की पैदल यात्रा शुरू कर दी। थोड़ा आगे आने पर एक चाय की दुकान खुली मिली। चाय और बिस्कुट का नाश्ता कर मैं आगे बढ़ गया। समय 7:30 का था। मैं योजना बनाये हुए था कि करीब 4 बजे तक मुझे दर्शन कर वापस नीचे लौटकर आना है। तभी मैं आज समय पर घर पहुँच सकता हूँ अन्यथा नहीं। पर दूसरी तरफ मुझे ये अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल लग रहा था कि मैं इतनी जल्दी इस सफर को पूरा कर पाऊंगा या नहीं। मैं श्री नीलकंठ को पहले भी आया हूँ। उस समय नीलकंठ के दर्शन के साथ-साथ, पार्वती मंदिर, झिलमिल गुफा और गणेश गुफा तक भी दोस्तों संग गया था और उसी दिन वापिस ऋषिकेश भी पहुँच गया था। पर अब बात दूसरी है। इन बातों को लगभग 10 साल हो गए। उस समय शारारिक क्षमता और थी तथा अब कुछ और है। इतना समय बीत गया इसलिए खुद पर यकीन कर पाना मुश्किल था पर नामुमकिन नहीं।
चलते-चलते मैं टैक्सी स्टैंड के पास पहुंचा। यहाँ से टैक्सी बुक कर उत्तराखंड में कही भी घूमा जा सकता है। लेकिन यहाँ अधिकतर भीड़ नीलकंठ जाने वालो की ही रहती है। टैक्सी स्टैंड के पीछे छूटते ही ऋषिकेश की हवा को पीछे छोड़ मैं आगे बढ़ चला। हर तरफ घना जंगल था। यहाँ से तक़रीबन 2 किलोमीटर तक पैदल जाने वालों को, सड़क जो मुख्य रास्ता है, पर ही चलना पड़ता है। फिर आगे जाकर सड़क का और पैदल पथ दोनों अलग-अलग हो जाते है। मैं इस सड़क वाले मार्ग पर अकेला ही चल रहा था। ना तो कोई मेरे आगे था और ना ही कोई पीछे। अब जंगल शुरू हो चुका था। मेरे दायीं ओर एक सूचना पट आया जिस पर यह दर्शाया गया है कि यह राजा जी नेशनल पार्क का हिस्सा है। इस पर नज़रे पड़ते ही मन इधर उधर भागने लगा कि कही कोई जानवर मुझे अकेला देख हमला ना कर दे। फिर नज़रे यह देखने को आगे पीछे दौड़ती कि कोई ओर भी मेरे साथ है क्या इस यात्रा पर ? लेकिन हमसफ़र तो दूर की बात है यहाँ तो कोई भी नहीं दिख रहा था। ना ही कोई नीचे से आ रहा था और ना ही कोई ऊपर की तरफ से आ रहा था। दिमाग ने फ़ौरन दिल से सवाल किया, क्या यहाँ आना जरूरी था ? वही दिल ने जवाब दिया कि यही तो यात्रा का रोमांच है। इसके बिना यात्रा का क्या मजा ? जहाँ दिमाग अपनी उधेड़बुन में था वही दिल इस माहौल को खुल कर जी लेना चाहता था। 20 मिनट तक मैं लगातार चलता रहा पर दूर-दूर तक भी किसी के यहाँ आने की आहट तक भी सुनाई नहीं आयी। जंगल में इतनी शांति थी कि छोटे-छोटे कीड़ो की आवाज भी बहुत तेज सुनाई पड़ रही थी। मेरी आँखे पेड़ो और झाड़ियों के बीच दूर तक देखने की कोशिश कर रही थी कि कही से कोई जानवर ना निकल आये। थोड़ा आगे चला तो हाथी का गोबर रोड के बीच पड़ा दिखाई दिया। हाथी यही आसपास हो सकता है। कुछ देर के लिए मैं रूक गया। तुरंत डिस्कवरी चैनल पर आने वाले प्रोग्राम वाइल्ड वस मैन याद आ गया। मुझे जानना था कि हाथी फिलहाल मेरे आसपास तो नहीं। मैंने हाथी के गोबर के पास जाकर देखा तो गोबर सूखा हुआ था। गोबर सूखा है इसका मतलब यह गोबर रात का है। इसलिए हाथी तो रात ही यहाँ से चला गया। यह जान मेरी जान में जान आयी। सड़क मार्ग का सफर मेरा यूँ ही बिना किसी मानव जाती को देखे बैगर ही पूरा हुआ।
चलते-चलते मैं टैक्सी स्टैंड के पास पहुंचा। यहाँ से टैक्सी बुक कर उत्तराखंड में कही भी घूमा जा सकता है। लेकिन यहाँ अधिकतर भीड़ नीलकंठ जाने वालो की ही रहती है। टैक्सी स्टैंड के पीछे छूटते ही ऋषिकेश की हवा को पीछे छोड़ मैं आगे बढ़ चला। हर तरफ घना जंगल था। यहाँ से तक़रीबन 2 किलोमीटर तक पैदल जाने वालों को, सड़क जो मुख्य रास्ता है, पर ही चलना पड़ता है। फिर आगे जाकर सड़क का और पैदल पथ दोनों अलग-अलग हो जाते है। मैं इस सड़क वाले मार्ग पर अकेला ही चल रहा था। ना तो कोई मेरे आगे था और ना ही कोई पीछे। अब जंगल शुरू हो चुका था। मेरे दायीं ओर एक सूचना पट आया जिस पर यह दर्शाया गया है कि यह राजा जी नेशनल पार्क का हिस्सा है। इस पर नज़रे पड़ते ही मन इधर उधर भागने लगा कि कही कोई जानवर मुझे अकेला देख हमला ना कर दे। फिर नज़रे यह देखने को आगे पीछे दौड़ती कि कोई ओर भी मेरे साथ है क्या इस यात्रा पर ? लेकिन हमसफ़र तो दूर की बात है यहाँ तो कोई भी नहीं दिख रहा था। ना ही कोई नीचे से आ रहा था और ना ही कोई ऊपर की तरफ से आ रहा था। दिमाग ने फ़ौरन दिल से सवाल किया, क्या यहाँ आना जरूरी था ? वही दिल ने जवाब दिया कि यही तो यात्रा का रोमांच है। इसके बिना यात्रा का क्या मजा ? जहाँ दिमाग अपनी उधेड़बुन में था वही दिल इस माहौल को खुल कर जी लेना चाहता था। 20 मिनट तक मैं लगातार चलता रहा पर दूर-दूर तक भी किसी के यहाँ आने की आहट तक भी सुनाई नहीं आयी। जंगल में इतनी शांति थी कि छोटे-छोटे कीड़ो की आवाज भी बहुत तेज सुनाई पड़ रही थी। मेरी आँखे पेड़ो और झाड़ियों के बीच दूर तक देखने की कोशिश कर रही थी कि कही से कोई जानवर ना निकल आये। थोड़ा आगे चला तो हाथी का गोबर रोड के बीच पड़ा दिखाई दिया। हाथी यही आसपास हो सकता है। कुछ देर के लिए मैं रूक गया। तुरंत डिस्कवरी चैनल पर आने वाले प्रोग्राम वाइल्ड वस मैन याद आ गया। मुझे जानना था कि हाथी फिलहाल मेरे आसपास तो नहीं। मैंने हाथी के गोबर के पास जाकर देखा तो गोबर सूखा हुआ था। गोबर सूखा है इसका मतलब यह गोबर रात का है। इसलिए हाथी तो रात ही यहाँ से चला गया। यह जान मेरी जान में जान आयी। सड़क मार्ग का सफर मेरा यूँ ही बिना किसी मानव जाती को देखे बैगर ही पूरा हुआ।
थोड़ा ऊचाई पर पहुँचकर नीचे गंगा और ऋषिकेश का दृश्य इतना खूबसूरत लगा रहा था कि इसे शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता। इसे तो वहां मौजूद होकर सिर्फ महसूस किया जा सकता है। पास में ही किसी चाय वाले का छप्पर था जो आज अपनी दुकान खोलने नहीं आया। इसी छप्पर के नीचे थोड़ी देर बैठ, नीचे बहती गंगा के अदभुत नजारों को निहारता रहा। अब बीच-बीच में कुछ लोग यात्रा करते दिखाई देने लगे। जैसे ही मैं वहां से थोड़ा आगे बढ़ा तो एक लड़का, एक लड़की को जबरदस्ती आगे को खींच रहा था। और वो लड़की आगे बढ़ने को बार-बार मना कर रही थी। पास गया तो सारी बात समझ आ गयी। दरअसल सामने रास्ते पर बहुत सारे लंगूर बैठे थे और वो उन्हें देख डर रही थी। जो उसको खींच रहा था वो उसका भाई था। यह लड़का यही ऋषिकेश में रहता है और एक दवाई की कंपनी में काम करता है। आज उसका सारा परिवार खुर्जा से यहाँ आया था उससे मिलने तो वो नीलकंठ के दर्शन कराने के लिए सभी को अपने साथ ले आया। मैंने भी उसकी बहन को समझाया कि ये कुछ नहीं कहेंगे आपको। बन्दर तो सामान छीनते है और लोगों को डराते है। पर लँगूर ऐसे नहीं होते। वे ना सामान छीनते है और ना ही डराते है। मेरे समझाने का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ तो उन्हें पीछे छोड़ मैं उन्हीं लंगूरों के पास से निकल आगे बढ़ गया। 11 बज गए। चढ़ते सूरज ने गर्मी को भी बढ़ा दिया। वैसे गर्मी जब तक ही ज्यादा लगती है जब तक हम अपने घरों में बैठे रहते है। शुरू से आखिरी तक पैदल पथ को 5 फ़ीट चौड़ा और पक्का बनाया हुआ है। इस रास्ते पर घने जंगलों के बीच निरन्तर चढ़ाई बढ़ती जा रही थी। चढ़ाई और साँस फूलने का अनुपात लगभग समान था। धूप ने थकान बढ़ाने में अहम् भूमिका अदा की। अकेला था इसलिए किसी के रूकने, साथ चलने से कोई फर्क नहीं था। बहुत से लोग जल्दी जाने के लिए शॉर्टकट का इस्तमाल कर मेरे से आगे निकल जा रहे थे। लेकिन शॉर्टकट के चक्कर में उन्हें तिखी चढ़ाई का सामना करना पड़ता जिस कारण वो ऊपर मुझसे पहले तो पहुँच जाते पर थक कर वही बैठ जाते। और मैं शॉर्टकट इस्तेमाल किये बिना सीधे पथ पर ही निरंतर चलता रहा। ट्रेकिंग के दौरान हमेशा मुख्य रास्ते पर ही चलना चाहिए। पहाड़ों पर चढ़ाई बहुत तीखी होती है। जिससे पहुंच तो जल्दी जाते है लेकिन शरीर की ऊर्जा अधिक खर्च होती है। और इसके विपरीत मुख्य मार्ग लम्बा जरूर होता है परन्तु ऊर्जा अपेक्षाकृत कम लगती है। इसका फयदा यह हुआ कि आप अपनी मंजिल तक पहुँच भी जाते है और थकान भी कम होती है।
रुकते रूकाते दोपहर तक़रीबन 12 बजे मैं नीलकंठ पहुँच गया। जाते ही एक दुकान पर बैग रख प्रसाद ले लिया और दर्शन करने वाली लाइन में जा लगा। अभी तक भीड़ कुछ ज्यादा नहीं थी। एक साथ अंदर मंदिर में जाने के लिए 4 लाइने थी। धीरे-धीरे भोले बाबा की जय लगाते ये कुछ पल का इंतज़ार भी खत्म हो गया। अंदर मंदिर में फोटो लेना वर्जित है। इस नियम का भली भाति मैंने ध्यान रखा। मंदिर परिसर में चारों ओर हनुमानजी, माता जी और बहुत से भगवानों की मूर्तियां सुसज्जित है और मंदिर परिसर के बीच में भोले बाबा का शिवलिंग है। शिवलिंग पर जल अर्पित कर आगे बढ़ते जाते है। यहाँ उपस्थित पंडितजी किसी को भी रूकने की अनुमति नहीं देते। भीड़ ज्यादा ना हो इस वजह से सेवक अपनी तरफ से हर मुमकिन प्रयास करते है। मंदिर में जाते ही सकारात्मक ऊर्जा चारों ओर से खुशबू की तरह मन और तन पर लिपट जाती है। रोम रोम केवल भगवान की गाथा गाना चाहता है। यहाँ पहुँच ऐसा लगा मानों संसार के सब मोह पीछे छोड़ आया हूँ। और जो सबसे बड़ा मोह है उसी के साथ आगे का जीवन जीना चाहता हूँ। ये भक्ति ही सबसे बड़ा मोह हैं। जिससे ना केवल सब दुख दूर होते है बल्कि साथ-साथ आत्मा को परमात्मा से मिलाने का यह एकमात्र साधन है। आज बहुत साल बाद भक्ति भाव से लिप्त यात्रा की तो उसका असर भी साफ दिखाई दे रहा है। काश! मैं रोज यहाँ आकर दर्शन कर पाता, काश! मैं रोज कुछ देर यहाँ बैठ पाता, काश! मैं हमेशा के लिये यहाँ का हो पाता, काश! ये समय हमेशा के लिए मेरा हो पाता, काश! ये इंसान द्वारा बनाई सभी परिस्थितियों को मैं भुला पाता, काश!..... जब तक साँस है तब तक "काश" भी जिन्दा रहेगा।
नीलकंठ मंदिर समुद्र तल से लगभग 4300 फ़ीट पर स्थित है। यह मंदिर देवो के देव महादेव को समर्पित है। यह उत्तखण्ड राज्य के पौड़ी गढ़वाल जिले में आता है। वाहन वाले रास्ते से जाए तो यह ऋषिकेश से 32 किलोमीटर दूर है। मंदिर खुलने का समय सुबह 6 से रात्रि 9 तक है। कहाँ जाता है कि समुद्र मंथन के दौरान भगवान शिव ने धरती को बचाने के लिए विष अपने गले में रख लिया जिससे उनका गला नीला पड़ गया। तभी से भगवान शिव का नीलकंठ नाम पड़ गया। यह घटना इसी स्थान पर हुई थी। सावन के पवित्र माह में यहाँ श्रद्धुलाओं (कावड़ियों) की भारी भीड़ होती है। शिवरात्रि का पर्व यहाँ बड़े धूमधाम से बनाया जाता है। यहाँ एक प्राइमरी और एक बारहवीं तक का स्कूल है। मंदिर तक पहुंचने के लिए पहाड़ के शिखर तक जाना होता है और फिर दूसरी तरफ नीचे उतरना पड़ता है। यहाँ आने का पूरा रास्ता घने जंगलों के बीच से होकर गुजरता है इसलिए अंधेरा होने के बाद पैदल पथ से आना-जाना बंद हो जाता है। इन जंगलों में सबसे ज्यादा संख्या हाथियों की है। पैदल वाले रास्ते पर जगह-जगह दुकाने भी है जहाँ चाय, नींबू पानी, बिस्कुट आदि मिल जाते है।
कुछ देर अपने मन को मैंने भी ऐसे बहलाया जैसे माँ अपने नादान बच्चे को बहलाती है जब वो किसी चीज़ की जिद करने लगे तो। मेरा चंचल मन कुछ देर ही सही मेरे बहकाने पर ये बहक ही जाता है। मेरा मन भी उस बच्चे के सामान हो जाता है जो दुकान पर बहुत सारे टॉफी के डिब्बों को देख समझ नहीं पाता कि उसे कौन सी टॉफी लेनी है। ठीक उसी तरह मेरा मन भी कभी-कभी समझ नहीं पाता कि उसे नई यात्राओं के द्वारा आगे बढ़ते जाना है या भक्ति रूपी चादर तन पर लपेट यही ठहर जाना है। ये मन की चंचलता ही तो है जो हमसे इस छोटे से जीवन में ना जाने कितने अच्छे-बुरे काम करा जाता है। ना जाने कितने अपरिचित से परिचय करा जाता है और ना जाने कितने परिचित को अपरिचित कर जाता है। शांति और सुकून के कुछ बीज मैं अपने झोले में डाल इस उम्मीद के साथ यहाँ से वापस चल दिया कि घर जा कर इन बीजों को किसी कोने भी बोउँगा। जिससे ये शांति और सुकून मुझे हमेशा मिलती रहे।
1 बजे मैं वापस ऋषिकेश को चल दिया। धूप बहुत तेज, आसमान साफ़ तथा ठंडी हवा निरंतर अपनी सेवा में लगी रही। पहाड़ की चोटी के पास जाकर एक जगह खाना खाया। यहाँ मधुर संगीत के भांति हवा मेरे चारों ओर आती और मुझे, कुछ देर यही बैठ खुद को सुनने की गुजारिश करती। हवा की इस मधुर राग को बीच में अधूरा छोड़, जाने का मेरा मन नहीं हुआ। कुछ समय ठहर इसका आनंद लिया। आखिर में ना चाहते हुए भी इससे अलविदा कहना ही था। अब मुझे निरंतर ढलान से ही नीचे आना था। जिसमे समय की बचत तो है पर ऊर्जा की नहीं। टेढ़े पैरों से शरीर को रोकते-रोकते थकान बहुत ज्यादा हो गयी। और वैसे भी मैं सुबह से ही लगातार चलने पर ही हूँ। इसलिए थकान होना लाजमी है। चिलचिलाती गर्मी में भी मुझे सिर्फ एक ही बात ध्यान थी कि मुझे कैसे भी करके अपने तय समय पर ही ऋषिकेश पहुंचना है। मुझे मिलाकर इस पूरी यात्रा में औसतन केवल 50 लोग होंगे जो पैदल इस यात्रा को कर रहे थे और उन 50 में से केवल एक मैं और एक वो खुर्जा वाले लड़के का परिवार ही था जो उसी दिन वापस भी आ रहे थे। वरना बाकी सभी आज रात वही रूके और अगले दिन ही वापस आएंगे। शरीर का भार ढोते-ढोते मैं हाँफने लगता तो कुछ पल बैठ जाता। दो तीन मिनट बाद पुनः यात्रा को जीवित कर लेता। गर्मी और थकान से अब हाल बुरा हो गया। खुर्जा वाला वो लड़का भी मेरे साथ हो लिया। और क्षण भर में ही वो मेरे से इतना खुल गया कि मेरे सामने ही अपनी ग्रलफ्रेंड से फोन पर बात करने लगा और वो भी स्पीकर ऑन करके। उसकी ये हरकत मुझे रास ना आयी और उसको आगे चलने को बोल मैं फिर थोड़ी देर के लिए बैठ गया। इस तरह मैंने बाकि बचे सारे रास्ते उससे एक उचित दूरी बनाये रखी। समय 3 का हो रहा था। इस समय बहुत कम लोग ही नीलकंठ को जा रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर में प्यास लग रही थी। बोतल में जो पानी था, वो ख़त्म जो चुका था। कुछ नीचे पहुँच एक नल मिला पर उसका पानी गन्दा था इसलिए बिना पानी पिए ऐसे ही चलता रहा। कुछ ही देर में गाडी वाला रास्ता जहाँ पैदल पथ पर मिलता है , मैं वहां पहुँच गया। अब मात्र 2-3 किलोमीटर का रास्ता शेष रह गया। अगले कुछ मिनटों में वो भी पूरा कर लिया। और मैं थके पैरो को रगड़ते हुए राम झूले के पास जाकर बैठ गया। इस समय थकान अपने चर्म पर थी। आधा घंटा मैं यूँ ही बैठ सिर्फ गंगा को देखता रहा। मेरे बैग में एक कैन थी जिसमे सुबह नीलकंठ के लिए, नीचे से जल लेकर गया था। सारा जल मैं मंदिर में ही चढ़ा आया था। मेरी हालत इस समय ऐसी थी कि मैं इस खाली कैन को 10 सीढी नीचे उतर इसमें जल ना भर सका और खाली कैन ही घर तक ले गया।
समय 4 का हो गया। अब घर चलने की बारी थी। सुबह 7:30 बजे के आसपास पैदल यात्रा शुरू की थी और 3:30 बजे वापस नीचे राम झूले पहुँचा। यानी ये पैदल यात्रा लगातार 8 घंटे चली। लगातार चलने से शरीर तो टूटना ही था। टूटे शरीर को समेट किसी तरह उठा और बाहर की ओर चल दिया। एक गिलास शिकंजी पी। अब चलना कैसे है बस से या ट्रेन से ? चलते-चलते यह भी तय हो गया। और ट्रेन का मोह किये बैगर ऑटो में बैठ बस अड्डे पहुँच गया। रविवार का दिन होने की वजह से भीड़ ज्यादा थी और बस आकर बाद में खड़ी होती, पहले भर जाती। कैसे तैसे मौका देख एक दिल्ली वाली बस में चढ़ा तो बस का ड्राइवर बोला ये ग़ज़ियाबाद नहीं जायेगी। मैंने उसको कहाँ "दिल्ली जायेगी तो ग़ज़ियाबाद होकर ही जायेगी। "
"ग़ज़ियाबाद वाले इसमें ना बैठे। ये ग़ज़ियाबाद के बाहर से होकर दिल्ली जायेगी। "
उसकी ये बात ठीक नहीं थी। दिल्ली और ग़ज़ियाबाद की बस एक ही होती है। लेकिन वो बीच की सवारी बैठना ही नहीं चहा रहा था। पर थकान के कारण मेरा मन उससे बहस करने का बिलकुल नहीं था। मैं चुपचाप पीछे दो बेंच वाली सीट पर बैठ गया। वैसे भी ये अपने घर तो मुझे ले जाने से रहा। इसको जरूर रोकनी पड़ेगी बस। अभी बस में दो चार सीट खाली थी। जिसमे से एक सीट मेरे बगल वाली थी। कंडेक्टर से बोल उसने बस का गेट बंद करा लिया और चल दिया दिल्ली की ओर। रास्ते में बहुत लोगों ने उसे रूकने को बोला। एक जगह तो रोडवेज की एक बस ख़राब हो गयी और उस बस के सभी यात्री और कुछ पुलिस वाले बस को रोकने का इशारा कर रहे थे। पर बन्दे ने कही भी बस नहीं रोकी और ना ही बस का गेट खोला। उसका ये रवैया बहुत गलत था। अँधेरा हो गया पर बस हरिद्वार और रुड़की के जाम से ही खेलती रही। रुड़की पार करते ही बस ने रफ़्तार पकड़ी। मुझे भी नींद आने लगी। पैरो को पर्याप्त जगह ना मिलने की वजह से थोड़ी परेशानी भी हुई। आधे घंटे को खाने के लिए बस एक होटल पर रूकी। उसके बाद बिना कही रूके रात 11 बजे राजनगर एक्सटेंशन चौराहे पर पहुँच गयी तो यहाँ इस समय भी जाम मिला। मैंने घर से भाई को फ़ोन कर बाइक लाने को बोल दिया और यही उतर गया। पैदल ही इस जाम को पार कर आगे आया तो भाई पहले ही वहां खड़े मिले। तक़रीबन 11:15 बजे मैं घर पंहुचा और इस यात्रा को विराम दिया। इस पूरी यात्रा को मैंने तय समय में और मात्र 472 रूपये (इसमें 130 रुपए कैमरे के शैल के भी है।) में पूरा कर लिया।
रुकते रूकाते दोपहर तक़रीबन 12 बजे मैं नीलकंठ पहुँच गया। जाते ही एक दुकान पर बैग रख प्रसाद ले लिया और दर्शन करने वाली लाइन में जा लगा। अभी तक भीड़ कुछ ज्यादा नहीं थी। एक साथ अंदर मंदिर में जाने के लिए 4 लाइने थी। धीरे-धीरे भोले बाबा की जय लगाते ये कुछ पल का इंतज़ार भी खत्म हो गया। अंदर मंदिर में फोटो लेना वर्जित है। इस नियम का भली भाति मैंने ध्यान रखा। मंदिर परिसर में चारों ओर हनुमानजी, माता जी और बहुत से भगवानों की मूर्तियां सुसज्जित है और मंदिर परिसर के बीच में भोले बाबा का शिवलिंग है। शिवलिंग पर जल अर्पित कर आगे बढ़ते जाते है। यहाँ उपस्थित पंडितजी किसी को भी रूकने की अनुमति नहीं देते। भीड़ ज्यादा ना हो इस वजह से सेवक अपनी तरफ से हर मुमकिन प्रयास करते है। मंदिर में जाते ही सकारात्मक ऊर्जा चारों ओर से खुशबू की तरह मन और तन पर लिपट जाती है। रोम रोम केवल भगवान की गाथा गाना चाहता है। यहाँ पहुँच ऐसा लगा मानों संसार के सब मोह पीछे छोड़ आया हूँ। और जो सबसे बड़ा मोह है उसी के साथ आगे का जीवन जीना चाहता हूँ। ये भक्ति ही सबसे बड़ा मोह हैं। जिससे ना केवल सब दुख दूर होते है बल्कि साथ-साथ आत्मा को परमात्मा से मिलाने का यह एकमात्र साधन है। आज बहुत साल बाद भक्ति भाव से लिप्त यात्रा की तो उसका असर भी साफ दिखाई दे रहा है। काश! मैं रोज यहाँ आकर दर्शन कर पाता, काश! मैं रोज कुछ देर यहाँ बैठ पाता, काश! मैं हमेशा के लिये यहाँ का हो पाता, काश! ये समय हमेशा के लिए मेरा हो पाता, काश! ये इंसान द्वारा बनाई सभी परिस्थितियों को मैं भुला पाता, काश!..... जब तक साँस है तब तक "काश" भी जिन्दा रहेगा।
नीलकंठ मंदिर समुद्र तल से लगभग 4300 फ़ीट पर स्थित है। यह मंदिर देवो के देव महादेव को समर्पित है। यह उत्तखण्ड राज्य के पौड़ी गढ़वाल जिले में आता है। वाहन वाले रास्ते से जाए तो यह ऋषिकेश से 32 किलोमीटर दूर है। मंदिर खुलने का समय सुबह 6 से रात्रि 9 तक है। कहाँ जाता है कि समुद्र मंथन के दौरान भगवान शिव ने धरती को बचाने के लिए विष अपने गले में रख लिया जिससे उनका गला नीला पड़ गया। तभी से भगवान शिव का नीलकंठ नाम पड़ गया। यह घटना इसी स्थान पर हुई थी। सावन के पवित्र माह में यहाँ श्रद्धुलाओं (कावड़ियों) की भारी भीड़ होती है। शिवरात्रि का पर्व यहाँ बड़े धूमधाम से बनाया जाता है। यहाँ एक प्राइमरी और एक बारहवीं तक का स्कूल है। मंदिर तक पहुंचने के लिए पहाड़ के शिखर तक जाना होता है और फिर दूसरी तरफ नीचे उतरना पड़ता है। यहाँ आने का पूरा रास्ता घने जंगलों के बीच से होकर गुजरता है इसलिए अंधेरा होने के बाद पैदल पथ से आना-जाना बंद हो जाता है। इन जंगलों में सबसे ज्यादा संख्या हाथियों की है। पैदल वाले रास्ते पर जगह-जगह दुकाने भी है जहाँ चाय, नींबू पानी, बिस्कुट आदि मिल जाते है।
कुछ देर अपने मन को मैंने भी ऐसे बहलाया जैसे माँ अपने नादान बच्चे को बहलाती है जब वो किसी चीज़ की जिद करने लगे तो। मेरा चंचल मन कुछ देर ही सही मेरे बहकाने पर ये बहक ही जाता है। मेरा मन भी उस बच्चे के सामान हो जाता है जो दुकान पर बहुत सारे टॉफी के डिब्बों को देख समझ नहीं पाता कि उसे कौन सी टॉफी लेनी है। ठीक उसी तरह मेरा मन भी कभी-कभी समझ नहीं पाता कि उसे नई यात्राओं के द्वारा आगे बढ़ते जाना है या भक्ति रूपी चादर तन पर लपेट यही ठहर जाना है। ये मन की चंचलता ही तो है जो हमसे इस छोटे से जीवन में ना जाने कितने अच्छे-बुरे काम करा जाता है। ना जाने कितने अपरिचित से परिचय करा जाता है और ना जाने कितने परिचित को अपरिचित कर जाता है। शांति और सुकून के कुछ बीज मैं अपने झोले में डाल इस उम्मीद के साथ यहाँ से वापस चल दिया कि घर जा कर इन बीजों को किसी कोने भी बोउँगा। जिससे ये शांति और सुकून मुझे हमेशा मिलती रहे।
1 बजे मैं वापस ऋषिकेश को चल दिया। धूप बहुत तेज, आसमान साफ़ तथा ठंडी हवा निरंतर अपनी सेवा में लगी रही। पहाड़ की चोटी के पास जाकर एक जगह खाना खाया। यहाँ मधुर संगीत के भांति हवा मेरे चारों ओर आती और मुझे, कुछ देर यही बैठ खुद को सुनने की गुजारिश करती। हवा की इस मधुर राग को बीच में अधूरा छोड़, जाने का मेरा मन नहीं हुआ। कुछ समय ठहर इसका आनंद लिया। आखिर में ना चाहते हुए भी इससे अलविदा कहना ही था। अब मुझे निरंतर ढलान से ही नीचे आना था। जिसमे समय की बचत तो है पर ऊर्जा की नहीं। टेढ़े पैरों से शरीर को रोकते-रोकते थकान बहुत ज्यादा हो गयी। और वैसे भी मैं सुबह से ही लगातार चलने पर ही हूँ। इसलिए थकान होना लाजमी है। चिलचिलाती गर्मी में भी मुझे सिर्फ एक ही बात ध्यान थी कि मुझे कैसे भी करके अपने तय समय पर ही ऋषिकेश पहुंचना है। मुझे मिलाकर इस पूरी यात्रा में औसतन केवल 50 लोग होंगे जो पैदल इस यात्रा को कर रहे थे और उन 50 में से केवल एक मैं और एक वो खुर्जा वाले लड़के का परिवार ही था जो उसी दिन वापस भी आ रहे थे। वरना बाकी सभी आज रात वही रूके और अगले दिन ही वापस आएंगे। शरीर का भार ढोते-ढोते मैं हाँफने लगता तो कुछ पल बैठ जाता। दो तीन मिनट बाद पुनः यात्रा को जीवित कर लेता। गर्मी और थकान से अब हाल बुरा हो गया। खुर्जा वाला वो लड़का भी मेरे साथ हो लिया। और क्षण भर में ही वो मेरे से इतना खुल गया कि मेरे सामने ही अपनी ग्रलफ्रेंड से फोन पर बात करने लगा और वो भी स्पीकर ऑन करके। उसकी ये हरकत मुझे रास ना आयी और उसको आगे चलने को बोल मैं फिर थोड़ी देर के लिए बैठ गया। इस तरह मैंने बाकि बचे सारे रास्ते उससे एक उचित दूरी बनाये रखी। समय 3 का हो रहा था। इस समय बहुत कम लोग ही नीलकंठ को जा रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर में प्यास लग रही थी। बोतल में जो पानी था, वो ख़त्म जो चुका था। कुछ नीचे पहुँच एक नल मिला पर उसका पानी गन्दा था इसलिए बिना पानी पिए ऐसे ही चलता रहा। कुछ ही देर में गाडी वाला रास्ता जहाँ पैदल पथ पर मिलता है , मैं वहां पहुँच गया। अब मात्र 2-3 किलोमीटर का रास्ता शेष रह गया। अगले कुछ मिनटों में वो भी पूरा कर लिया। और मैं थके पैरो को रगड़ते हुए राम झूले के पास जाकर बैठ गया। इस समय थकान अपने चर्म पर थी। आधा घंटा मैं यूँ ही बैठ सिर्फ गंगा को देखता रहा। मेरे बैग में एक कैन थी जिसमे सुबह नीलकंठ के लिए, नीचे से जल लेकर गया था। सारा जल मैं मंदिर में ही चढ़ा आया था। मेरी हालत इस समय ऐसी थी कि मैं इस खाली कैन को 10 सीढी नीचे उतर इसमें जल ना भर सका और खाली कैन ही घर तक ले गया।
समय 4 का हो गया। अब घर चलने की बारी थी। सुबह 7:30 बजे के आसपास पैदल यात्रा शुरू की थी और 3:30 बजे वापस नीचे राम झूले पहुँचा। यानी ये पैदल यात्रा लगातार 8 घंटे चली। लगातार चलने से शरीर तो टूटना ही था। टूटे शरीर को समेट किसी तरह उठा और बाहर की ओर चल दिया। एक गिलास शिकंजी पी। अब चलना कैसे है बस से या ट्रेन से ? चलते-चलते यह भी तय हो गया। और ट्रेन का मोह किये बैगर ऑटो में बैठ बस अड्डे पहुँच गया। रविवार का दिन होने की वजह से भीड़ ज्यादा थी और बस आकर बाद में खड़ी होती, पहले भर जाती। कैसे तैसे मौका देख एक दिल्ली वाली बस में चढ़ा तो बस का ड्राइवर बोला ये ग़ज़ियाबाद नहीं जायेगी। मैंने उसको कहाँ "दिल्ली जायेगी तो ग़ज़ियाबाद होकर ही जायेगी। "
"ग़ज़ियाबाद वाले इसमें ना बैठे। ये ग़ज़ियाबाद के बाहर से होकर दिल्ली जायेगी। "
उसकी ये बात ठीक नहीं थी। दिल्ली और ग़ज़ियाबाद की बस एक ही होती है। लेकिन वो बीच की सवारी बैठना ही नहीं चहा रहा था। पर थकान के कारण मेरा मन उससे बहस करने का बिलकुल नहीं था। मैं चुपचाप पीछे दो बेंच वाली सीट पर बैठ गया। वैसे भी ये अपने घर तो मुझे ले जाने से रहा। इसको जरूर रोकनी पड़ेगी बस। अभी बस में दो चार सीट खाली थी। जिसमे से एक सीट मेरे बगल वाली थी। कंडेक्टर से बोल उसने बस का गेट बंद करा लिया और चल दिया दिल्ली की ओर। रास्ते में बहुत लोगों ने उसे रूकने को बोला। एक जगह तो रोडवेज की एक बस ख़राब हो गयी और उस बस के सभी यात्री और कुछ पुलिस वाले बस को रोकने का इशारा कर रहे थे। पर बन्दे ने कही भी बस नहीं रोकी और ना ही बस का गेट खोला। उसका ये रवैया बहुत गलत था। अँधेरा हो गया पर बस हरिद्वार और रुड़की के जाम से ही खेलती रही। रुड़की पार करते ही बस ने रफ़्तार पकड़ी। मुझे भी नींद आने लगी। पैरो को पर्याप्त जगह ना मिलने की वजह से थोड़ी परेशानी भी हुई। आधे घंटे को खाने के लिए बस एक होटल पर रूकी। उसके बाद बिना कही रूके रात 11 बजे राजनगर एक्सटेंशन चौराहे पर पहुँच गयी तो यहाँ इस समय भी जाम मिला। मैंने घर से भाई को फ़ोन कर बाइक लाने को बोल दिया और यही उतर गया। पैदल ही इस जाम को पार कर आगे आया तो भाई पहले ही वहां खड़े मिले। तक़रीबन 11:15 बजे मैं घर पंहुचा और इस यात्रा को विराम दिया। इस पूरी यात्रा को मैंने तय समय में और मात्र 472 रूपये (इसमें 130 रुपए कैमरे के शैल के भी है।) में पूरा कर लिया।
टैक्सी स्टैंड |
सुनसान रास्ता |
इस मुख्य मार्ग पर शुरू से आखिरी तक मुझे कोई नहीं मिला |
पैदल यात्रा के लिए यही रास्ता है। |
नीलकंठ की ओर जाते |
कुछ उचाई पर स्थित छोटा पेड़ |
गंजा |
हरयाली के पीछे छिपा ऋषिकेश |
नीचे दिखाई देता ऋषिकेश और गंगा |
मनोरम दृश्य |
एक प्रकृति गुफा, सूरज की किरणों के साथ |
ल से लंगूर |
इस यात्रा पर मेरा एक मात्र फोटो जो उस खुर्जा वाले लड़के ने लिया |
पैदल पथ |
पहाड़ के शिखर से दिखता नज़ारा |
नीचे जो नीले और लाल रंग की छत दिखाई दे रही है। वही है नीलकंठ महादेव मंदिर |
मंदिर से आधा किलोमीटर पहले तक ऐसे ही रेलिंग लगी है। इससे पता चलता है कि यहाँ सावन में कितनी भीड़ होती है। |
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मंदिर के बाहर का दृश्य |
व्यवसाय - मंदिर के ठीक सामने रुद्राक्ष एवं मालाओं की एक दुकान |
मेरा गाँव मेरी सड़क योजना |
प्रकृति का एक रूप यह भी |
सावन के पवित्र माह में इन खाली जगहों पर ही दुकानें और ठहरने का इंतजाम होता है। |
नीलकंठ से थोड़ा पहले एक छोटा कमरा बना उस पर टीन शैड का निर्माण यात्रियों के रूकने के लिए किया हुआ है। |
इस यात्रा के सभी भाग आप यहाँ से भी पढ़ सकते है :-
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गौरव भाई नीलकंठ यात्रा का बहुत ही शानदार विवरण, शॉर्टकट के चक्कर में कुछ लोग चोटिल भी होते है, अच्छा किया जो आपने शॉर्टकट नहीं लिया। अकेले यात्रा का रोमांच कुछ अलग ही होता है वो थी ट्रैकिंग में। फोटो सारे मनभावन हैं
ReplyDeleteएकल यात्रा का स्वाद जी कुछ ऐसा होता है सिन्हा जी जो एक बार मुँह लग गया तो बार बार दोहराने का मन होता है। आपने मेरी इस पोस्ट पढ़ने के लिए समय दिया उसके लिए आभार आपका
DeleteWaise solo travlling me apni photo nahi aati, maine 6 din akele travel kiya tha, aur photo thee to kewal 4 photo
ReplyDeleteजी यही होता है एकल यात्रा में। मेरा भी बस ये एक फोटो ही आया। उसके लिए भी गुजारिश की गयी किसी से। आपका भी वही हाल रहा 6 दिन में केवल 4 फोटो ही आ पाए
Deleteराम झूला से नीलकंठ महादेव की दूरी लगभग 14 किलोमीटर के आसपास बताते हैं। मैं अभी तक पैदल सिर्फ एक बार ही गया हूं। दूसरी बार कार चला कर गया था। अब दोबारा पैदल जाऊंगा तो अंदाजा लगाऊँगा कि दूरी लगभग कितनी है, वैसे भाई आपके फोटो में कलर थोड़ा डार्क हो गए हैं।
ReplyDeleteफोटो के रंग वास्तविक ही रहने दे छेड़छाड़ ना करें क्योंकि रंग डार्क करने से वास्तविक नहीं रह जाते है।
मोबाइल फ्रेडली ब्लॉग बनाओ भाई, अभी यह लेपटॉप वाला ही है।
सबसे पहले आप मेरे ब्लॉग तक आये उसके लिए आपका दिल से धन्यवाद। जी मुझे भी ये दूरी ज्यादा ही लगी। अभी इस क्षेत्र में नया हूँ इसलिए आप और आप जैसे और भाइयों की मदद से सभी कमी जल्द ही ठीक कर ली जाएगी। बहुत अच्छा लगा आपने अपने विचार मुझ तक पहुँचाये। शुक्रिया आपका ।
Deleteबढ़िया फोटो..बढ़िया विवरण
ReplyDeleteआभार आपका प्रतिक जी
Deleteनीलकंठ महादेव यात्रा की बढ़िया पोस्ट गौरव भाई .....
ReplyDeleteपिछली साल हम भी गये थे नीलकंठ महादेव ... पर गाड़ी से
जानकर अच्छा लगा कि आपने भी इस यात्रा का आनंद लिया और श्री नीलकंठ जी के दर्शन किये। ..धन्यवाद आपका रितेश भाई ..
Deleteडॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी आपका दिल से आभार
ReplyDeleteसुन्दर तस्वीरों के साथ जीवंत विवरण।
ReplyDeleteमैं खुद कुछ दिनों से उधर जाने की सोच रहा था लेकिन फिर कुछ और योजनायें बन गयीं। आपकी पोस्ट ने उधर जाने के लिए दोबारा प्रेरित किया है। उम्मीद है जल्द ही एक चक्कर लगाऊँगा।
जी जरूर जाये। आशा करता हूँ कि इस यात्रा का आनंद आप जल्द से जल्द ले सके। अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए दिल से धन्यवाद विकास नैनवाल जी ...
Deleteबहुत ही अच्छा विवरण और जबरदस्त फोटो .....सभी तस्वीरें खूबसूरत
ReplyDeleteआपको यह लेख पसंद आया यह जान अच्छा लगा। यूं ही आते रहे। आभार आपका संजय जी ...
Deleteबढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतीक जी
Deleteजय नीलकंठ महादेव!
ReplyDeleteThis is great and amazing post.Thanks a lot for giving proper tourist knowledge and share the different type of culture related to different places. Bharat Taxi is one of the leading taxi and cab service provider in all over India. https://www.bharattaxi.com
ReplyDeleteApki post bhut achi lgi hm bhi 29 July Ko Nilkanth gye the
ReplyDeleteबहुत ही सजीव यात्रा वर्णन
ReplyDeletenice
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